जब आपकी नब्ज़ जम जाए…मणिपुर आंतकी हमले में शहीद मासूम अबीर त्रिपाठी को समर्पित

रायगढ़।
मेरे घर के सामने एक पार्क है। 2 से 12 उम्र के बच्चे यहां खेलते हैं। हर शाम उनकी धमाचौकड़ी और खुली हंसी में, मैं भूलती हूं अपनी व्यस्क दुनिया की बेतरतीब उलझनें। पर 13 नवंबर 2021 को ऐसा लगा मानों पूरे संसार के क्रोध ने बचपन की मासूमियत को निगल लिया हो। उस दिन खिड़की से बाहर झांकने की हिम्मत नहीं हुई। लगा कि पार्क में खेलते बच्चों के कलरव में, एक आवाज कम है।
फौजी परिवार से होने के कारण मैं यह लेख अबीर को समर्पित करती हूं, क्योंकि उसे खोने में हम सब ने मानवता का एक बड़ा हिस्सा भी खो दिया है। एक मासूम बच्चे को खो देने के अवसाद में, ध्यान मानों समाज की संवदेनहीनता पर भी जाता है। एक ऐसे समाज पर जहां अबीर ने अपने नन्हें कदम बड़ों के भरोसे लिए। शायद यही उसकी भूल थी।
बहरहाल
दर्द होता है देखकर कि किसी मेगास्टार का बच्चा अपने आपराधिक कृत्य के नाते खबरों की सुर्खियों में रहता है। पर एक मासूम बच्चे की शहादत बेजान अक्षरों में गुमनाम। इन नृशंसता से मेरे देशवासियों का खून नहीं खौलता क्यों?
क्या इसलिए कि यह खबर ग्लैमरस नहीं है या यह किस्सा आम लोगों का है जिनके इंस्टाग्राम में लाख फॉलोवर नहीं होते। हम जानना चाहते हैं कि क्यों किसी आतंकीवादी के मानवाधिकार का मुद्दा मीडिया की कवर स्टोरी बनती है पर अबीर को इंसाफ दिलाने के लिए कोई आवाज सुनाई नहीं देती।
भारत और अंतरराष्ट्रीय मीडिया की उदार आवाजें खामोश हो जाती हैं। शहादत अखबारी सूचना बन जाती है। अबीर और अनुजा का ऐसे चला जाना किसी जनाक्रोश की वजह नहीं बन पाता। फौज हम पत्नियों को विलाप करना नहीं सिखाती। हमें पति के कर्तव्य और काम-काज की बेहतर समझ है। अगर उनसे दूर रहने के लंबे फासलों में, हम जानते हैं कि उनके ठिकाने का धुंधला पता लगा पाना हमारा सौभाग्य है। वहीं उनके होने की नामालूमियत में विन्यस्त होता है। फौजियों के परस्पर मजबूत रिश्ते पर हमारा विश्वास ‘वह सुरक्षित घर लौटेंगेÓ
पर अब?
सुरक्षा की इस कसौटी पर क्या अब हम फौजी परिवारों को भी शामिल करने की चेतना जगा लें?
क्या अब, फौजी परिवार की औरतों और बच्चों की जिंदगी सामाजिक कार्यक्रमों में औपचारिक मौजूदगी के अलावा भी कुछ है?
अगर हां, तो एक देश की हैसियत से, अबीर और अनुजा के चले जाने में हमें टूट जाना चाहिए था। पर हमारी प्रतिक्रिया कुछ राजनीतिक टिप्पणियों तक ही सीमित रही।
चुनिंदा कुछ लोग जिन्होंने मानवता के इस शून्य का विरोध करना चाहा उनकी आवाज को ‘नाटकीयताÓबताकर खामोश करने की बौद्धिक कोशिश की गई।
हम इसका पुरजोर विरोध करते हैं। जरूरी है कि विरोध किया जाए, जरूरी है कि विरोध का यह स्वर सुदृढ़ बने, जरूरी है कि यह दर्द हमें याद रहे क्योंकि हम सभी के घरों में एक अबीर है, एक अनुजा है इसलिए हमारी जिंदगियां भी मायने रखती हैं।
वर्दी में मुस्दैत हमारे वीरों की रीढ़ हैं हम, उनका परिवार हम महिलाओं और बच्चे उनकी जरूरत हैं। ना कि जिंदगी में खर्च कोई कीमत।
अबीर और अनुजा की असल कीमत उन मुस्कुराहटों में है जो उन्होंने अपने आसपास फैलाई। भले ही इसके लिए उन्हें अपने जीवन का मूल्य चुकाना पड़ा।
जो लोग उन जगहों पर अपने परिवार को खुश रख सकते हैं जहां होने की कल्पना मात्र से डर लगता हो, उनका जन्म किसी उत्सव से कम नहीं।
ऐसी खरतनाक जगहों में घर-परिवार की खुशहाली का जिम्मा कोई वीरांगना ही ले सकती है। अनुजा, हम फौजी पत्नियों के लिए तुम  “रोल मॉडल” रहोगी।
अबीर, तुमसे एक बेमानी और बेकार खेद के अलावा हम और कुछ व्यक्त नहीं कर सकते। तुमसे बड़े होने के नाते हमने और इस देश ने तुम्हे धोखा दिया है।
तुम्हारे बारे में इतना लिखना एक गहरी टीस के बगैर संभव नहीं है, क्योंकि मेरे दोस्त, तुम हमारा वो कल थे जिसे बेहतर बनाने के भ्रम में हम जी रहे हैं।
फौजी परंपरा में तुम्हारे पिता अमर रहेंगे, पर अबीर तुम्हारी स्नेहित स्मृति के साथ हमारी आशा जुड़ी होगी, कि शायद किसी दिन, तुम हमें माफ कर सकोगे।
मैं नहीं जानती कि तुम्हारे चले जाने के इस असीम दुख की भयावहता को संसार कब समझेगा?
पर उम्मीद करती हूं कि जल्दी ही किसी रोज इस स्मृति की असहनीय पीड़ा के बीच हमें तुम्हारी मुस्कुराहट भी याद आएगी।
अगर आज हमारी नब्ज यूं जम जाए तो कल देश के लिए बहे खून का कोई मूल्य नहीं रहेगा।
शायद इसीलिए, अबीर और अनुजा को खुशमिजाज और संवेदनशील इंसानों की तरह याद किया जाना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
और उनकी स्मृति का उत्सव हमारा कर्तव्य होगा।
अब आगे ऐसा नहीं।

मालविका एस लांबा(लेखिका के पति भारतीय थल सेना में कर्नल हैं और वह एक 8 साल के बच्चे की मां हैं और वह सोशल मीडिया में बहुत जागरूक रहती है।)

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